bharat Muni aur Stanislavsk भरत मुनि और स्तानिस्लाव्स्की


भरत मुनि के सिद्धांतों को आधुनिक नाट्यचिंतन के परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए कहीं-कहीं महान रूसी अभिनेता और निर्देशक कोस्तांतिन स्तानिस्लावस्की के विचार का उल्लेख किया है। इस प्रक्रिया में मैंने अनुभव किया कि रंग क्षेत्र के ये हो महारथी देशकाल की सदीर्घ परिधि लाँधकर कहीं-कहीं एक-दूसरे के बहत नजदीक आ गए हैं और इस विषय पर अधिक विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से यह परिशिष्ट जोड़ी गई है।

स्तानिस्लावस्की का असली नाम कोंस्तांतिन सेर्गेयेविच अलेक्सेयेव था। आपका जन्म मास्को के एक धनी उद्योगपति के परिवार में सन् 1863 में हआ था। 19-6-1898 को आपने नेमिरोविच दांचेंको के सहयोग से मास्को आर्ट थियेटर के नाम से नाट्यशाला की स्थापना करके रूस में और समस्त पच्छिमी जगत में आडंबरपूर्ण और परंपरावादी रंगमंच को एक क्रांतिकारी मोड़ दिया था। उन्होंने जारशाही का निरंकुश शासन देखा था। साथ ही वे 1917 की महान् रूसी क्रांति के प्रत्यक्षदर्शी भी थे। उनका निधन 1938 में हो गया था।

डार्विन का विकासवाद, बायरन और पुश्किन का स्वच्छंदतावाद, फ्रायड का मनोविश्लेषण और मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद उन्हें विरासत में मिले थे। विश्वविख्यात नाटककार इब्सन, चेखव, बर्नार्ड शॉ, ब्रेख्त और गोर्की तथा उपन्यासकार दोस्तोएवस्की एवं टाल्स्टाय, कवि रिल्के, अस्तित्ववादी विचारक कीर्के गार्ड (1813-53) और ज्याँ पाल सात्र उनके समकालीन थे। उन्होंने चेखव की रचनाओं 'चेरी का बगीचा' तथा 'जलपंछी' का सफल और प्रभावकारी मंचन करके उन्हें (चेखव) ख्याति की चोटी पर पहुँचाया था। उन्होंने गोर्की के नाटक 'तलछट' (Lower Deptts) का भावपूर्ण मंचन करके सिद्ध कर दिया था कि कला के कोमल तंतुओं में राजनीति और प्रचार का भी गुंफन हो सकता है।

ऐसे व्यक्ति की तुलना उस नाट्यविद से करना दुराग्रह ही माना जाएगा जो आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व उस पीढ़ी का कलाकार था जो राजाओं और सामंतों का मनोरंजन करना ही कला का उद्देश्य समझती थी, जिसका सामान्य या निम्न वर्ग से कोई नाता नहीं था और जो प्राचीन रूढियों और अंधविश्वासा से जकड़ी हुई थी।

लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दोनों नाट्याचार्यों के अभिनय सिधांतों में कुछ मौलिक बिंदुओं पर अद्भुत समानता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो स्तानिस्लावस्की भरत मुनि के आधुनिक संस्करण हों।

भरत मुनि चार प्रकार के अभिनय में सात्विक अभिनय को सर्वश्रेष्ठ मानते थे, जिसमें अभिनेता अपने अनुकरणीय चरित्र के आंतरिक भावों को सात्विक विकारों (अश्रु, रोमांच और मुखराग आदि) के द्वारा अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है और दर्शक-श्रोताओं के हृदय में वही भाव और अनुभूतियाँ जगाता है जो चरित्र के मन में थीं। इस प्रकार दर्शक- श्रोता अभिनेता के माध्यम से चरित्र के साथ पहचान स्थापित करके उसके सुख-दुःख में सहभागी बन जाते हैं और इस क्रिया में ही वे आत्मविस्मृत हो रस और आनंद का अनुभव करते हैं।

भरत मुनि ने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि अभिनय को स्वाभाविक (लोक स्वभाव के अनुरूप) बनाने के लिए नाटक में सत्व Essence (सार / अस्तित्व ) आवश्यक है। यह सत्वभाव ही है जो दुःखी अभिनेता से सुखी पात्र और सुखी अभिनेता से दुःखी पात्र का अभिनय कराता है। सत्व मन की सृष्टि है। वह मन की एकाग्रता पर निर्भर है। रोमांच, अश्रु और स्वरभेद आदि उसके जो बाह्य लक्षण हैं, उन्हें अन्यमनस्क Absentminded (भ्रांतचित्त, खोया-खोया )होकर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

इस सबका आधार रस-सिद्धांत है जिसके अंतर्गत पात्र, अभिनेता, लेखक तथा श्रोता की भावात्मक सत्ता एकाकार हो जाती है।

स्तानिस्लावस्की ने भी अभिनय में सत्व Essence (सार / अस्तित्व ) को सर्वोच्च स्थान दिया है। केवल उनकी भाषा भिन्न है। उन्होंने अनेक वाक्यों और रूपकों के द्वारा सात्विक अभिनय की वरीयता रेखांकित की है और कहीं-कहीं ऐसा लगता है जैसे उनकी वाणी भरत मुनि की शब्दावली पाने के लिए छटपटा रही है। उन्होंने अभिनय और निर्देशन पर कई पुस्तकें लिखी हैं जो आज भी अभिनेताओं के लिए अभिनय का सबसे बदा आधार माना जाता हैं। लेकिन उनकी अधिकांश रचनाएँ उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई थीं जिसके कारण अभिनय कला पर उनके क्रांतिकारी और वैज्ञानिक सिद्धांतों से लोग उनके जीवन काल में सही रूप से परिचित नहीं हो सके थे। उनकी प्रथम पुस्तक ‘एक अभिनेता का आत्मविश्लेषण' (An Actor's Work on Himself) भाग-1, उनके जीवन काल में प्रकाशित हो गई थी। लेकिन इसका दूसरा भाग और उनकी अन्य रचनाओं का संकलन 8 खंडों में उनके बाद ही प्रकाशित हुआ था। अभिनय कला और रंगमंच पर उनके सिद्धांतों का निचोड़ उनके एक निबंध 'नाट्यकला की विभिन्न पद्धतियाँ (On Various Trends In Theatrical Art) में मिल जाता है जो रादुगा प्रकाशन मास्को से प्रकाशित 'संकलित रचनाएँ' नामक पुस्तक में संग्रहीत है। इसमें उन्होंने आडंबरपर्ण और चमत्कारी अभिनय के स्थान पर सच्चे भावपूर्ण अभिनय की पुरजोर वकालत की है।

जिसमें अभिनेता लेखक तथा अभिनेय चरित्र के अंतरमन को Identification पहचान, समानता, समरूपता करके उसकी गहनतम भावनाओं को अपने सहज लक्ष्य और स्वाभाव के दवारा दर्शक- श्रोता तक पहुँचाता है और इस प्रक्रिया में अभिनेता और श्रोता एकाकार हो जाते हैं।

स्तानिस्लावस्की के अनुसार पहले अभिनेता के मन में पात्र की मनोदशा के अनुरूप भाव जाग़ृत हों , तब भावात्मक और शारीरिक अभिनय के द्वारा उन भावो को दर्शक तक पहुँचाया जाए। अभिनेता का सृजन तब आरंभ होता है जब वह अपनी भमिका में वास्तविक रुचि लेता है और उसे भावात्मक रूप से आत्मसात कर लेता है। असल में भावात्मक तादात्म्य Identification पहचान, समानता, समरूपता के बिना (Emotional Identifications) कोई भी सृजन संभव नहीं। अभिनेता जब अपनी भूमिका को भावात्मक रूप से जी कर उसका सही ज्ञान कर ले, तब उसे मंच पर ऐसी कलात्मक सृष्टि करनी चाहि जिसमें अंतर्मन के भाव, बिंब और आत्मा साकार हो उठे। अभिनेता नाटक की कथावस्तु को नहीं बल्कि उसमें निहित विचारों और भावों को व्यक्त करता है। भावात्मक एकीकरण में व्यस्त नाट्य का उद्देश्य मंच पर मानव-जीवन का सजीव चित्र कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करना है। अभिनेता की निपुणता का आधार भावात्मक तल्लीनता है और उसी प्रकार उसे भावात्मक एकीकरण की कला कहा जा सकता है। शरीर और आत्मा एक-दूसरे में समाविष्ट होने के कारण शारीरिक अभिनय में आत्मा स्वतः अवतरित होती रहती है और उसे भौतिक रूप प्राप्त होता है। मानव-जीवन और अनुभूति की सच्चाई सीधे अभिनेता और दर्शक के चेतनातंत्र को छू लेती है; वह अभिनेता के संपूर्ण अस्तित्व को जकड़ लेती है जिससे उसकी अदाकारी मार्मिकता के चरम बिंदु पर पहुँच जाती है। दूसरी ओर वह दर्शक की संवेदना को उच्चतम स्तर तक पहुँचा देती है। अभिनेता की सच्ची भाव-तल्लीनता दर्शकों को जितना प्रभावित करती है उतना और कोई चीज़ नहीं। प्रकृति का यह अटल नियम है।

यदि स्तानिस्लावस्की संचारी, स्थायी या सात्विक भाव और रस की भाषा से परिचित होते तो बहुत संभव है कि वे इसी शब्दावली को अपनाते और भरत के सिद्धांतों को उद्धृत करते। उन्होंने दो पदों का प्रयोग कई बार किया है, जिनका अंग्रेजी अनुवाद इमोशनल आइडेंटीफिकेशन (Emotional Identification) और (Emotional Involvement) किया गया है। उन्होंने अपना मातृभाषा रूसी मे किन शब्दों का प्रयोग किया है और उनका वास्तविक आभप्राय क्या है।

इसे रुसी भाषा का ज्ञान होने पर ही जाना जा सकता है। किंतु इतना स्पष्ठ है कि उनकी अभिव्यक्ति लड़खड़ाती हुई भरत की भाषा के निकट पहुंच गई। वे जिस भावात्मक तादात्म्य (Emotional Identification) और इमोशनल इंवॉल्वमेंट (Emotional development) की बात करते हैं और उसे रस सिद्दांत के Identification पहचान और Simplification सरलीकरण से सहज ही जोडा जा सकता है।

भरत का एक दूसरा मौलिक सिद्दांत यह है कि नाटक और अन्य कलाओं की सृष्टि केवल संचारी भावों (Communicative sentiment ) के आधार पर नहीं हो सकती। उनके साथ किसी स्थाई भाव का होना आवश्यक है ताकि सृजन की विभिन्न कड़ियों में निरंतरता, एकसूत्रता और समग्रता बनी रहे। दर्शकों के लिए यह स्थायी भाव ही रस का निमित्त/ वाहक (purpose) बन जाता है ।

स्तानिस्लावस्की ने इसी विचार को दूसरे शब्दों में कुछ यों व्यक्त किया है कला का जन्म उस क्षण में होता है जब एक अटूट श्रृंखला स्थापित हो जाती है। यह श्रंखला चाहे स्वर और वाणी की हो, चाहे चित्र अथवा गति की हो; जब तक लय के स्थान पर अलग-अलग स्वर और चीत्कार सुनाई पड़ेंगे, डिजाइन के स्थान पर रेखायें या बिंदु बिखरे होंगे और समन्वित गतिक्रम के स्थान पर झटके तथा उछल कूद होगी; तब तक संगीत, चित्र, नृत्य और नाट्य का प्रश्न ही नहीं उठता। यह आंतरिक एकबद्धता मन की अटल गहराइयों से आती है।

भरत की भाँति स्तानिस्लावस्की भी श्रेष्ठ अभिनय के लिए मन को एकाग्र करने की क्षमता अभिनेता के लिए एक आवश्यक गुण मानते थे। अभिनेता को अपनी भूमिका की तैयारी घर पर करनी चाहिए जहाँ एकाग्रता अधिक हो सकती है। मंच पर तो बस उसे इस अभ्यास का परिणाम दिखाना चाहिए।

भरत और स्तानिस्लावस्की दोनों इस बात पर सहमत हैं कि अभिनेता को कल्पित पात्र के निर्जीव शरीर में आत्मा की तरह प्रवेश करके उसे हाड़-मांस का सजीव रूप देना चाहिए और नाटककार द्वारा निरूपित चरित्र को अपना लेना चाहिए। अर्थात जिस प्रकार पुनर्जन्म होने पर जीव अपना स्वभाव त्यागकर दूसरी देह में चला जाता है और उस पर आश्रित होकर दूसरा स्वभाव अपना लेता है, उसी प्रकार कुशल अभिनेता मन से यह सोचते हुए कि मैं वही व्यक्ति (नाटक का पात्र) बन गया हूं वेश,वाणी, अंग,लीला और चेष्टाओं के दवारा उसके (पात्र के) स्वभाव का आचरण करे ।

इसी तथ्य को स्तानिस्लावस्की ने अनेक स्थानों पर कुछ भिन्न शब्दावली मे व्यक्त किया है। यहाँ तक कि उन्होंने भी इस प्रसंग मे पुनर्जनम और कायाकल्प के रूपकों का ही इस्तेमाल किया है। उन्होंने लिखा है कि अभिनेता को अपनी भूमिका को जीना होता है, प्रत्येक बार प्रत्येक प्रस्तुति मे चरित्र के मनोभावों को महसूस करना होता है। यदि अभिनेता पात्र के चरित्र के भावयन / अभिव्यक्ति ( Expression) मे अपना कायाकल्प ही कर डाले और एक नया जन्म लेले तो यह एक बडी उपलब्धि है।

उसे पात्र के जीवन में अपने मानवीय गुणों को फिट कर देना चाहिये और उसमे अपनी समस्त आत्मा को उड़ेल देना चाहिए। भूमिका के भाव पक्ष पर मनन पात्र का जीवन जीने की आंतरिक प्रक्रिया की सहायता से आरंभ होता है।

यहाँ अभिनय के बारे में जर्मन नाटककार ब्रेख्त के मत का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। ब्रेख्त को असंगत (Incompatible) नाटक का प्रवर्तक कहा जाता है । भरत मुनि और स्तानस्लावस्की के विपरीत उनका कहना है कि भूमिका के चरित्र से तदात्म (Identification ) कर लेना-उसमें तल्लीन हो जाना-अभिनेता की मौत है।

अभिनेता को पात्र के प्रति तटस्थ और निर्लिप्त रहना चाहिए। तभी वह श्रेष्ठ अभिनय को अंजाम दे सकता है। इसी प्रकार वे दर्शकों को पात्र से दूर रहने, उसके सुख-दुःख से विरक्त रहने की सलाह देते हैं।

अभिनेता के लिए वही भूमिका निभाना कठिन होता है जिसमें पात्र का चरित्र और उसका चरित्र एक जैसा हो। अभिनय में एक संगति, एक क्रम और एक नियोजन हो जो कल्पना का योगदान है। कला यथार्थ और कल्पना-दोनों का समन्वय है।

भरत मुनि स्वयं नट-अभिनेता थे। (संस्कृत में भरत का अर्थ नट-समुदाय भी है) नाट्यशास्त्र में उन्होंने देश के विभिन्न अंचलों के रीति-रिवाजों, वेशभूषा, रंग-रूप,बोल-चाल का जो वर्णन किया है, उससे पता चलता है कि वे देश-देश घूमे हुए थे और उन्हें जीवन तथा लोक का गहरा अनुभव था। लेकिन यथार्थ के इस निकट परिचय ने उनकी दृष्टि लालित्य और कौशल से ओझल नहीं होने दी।

स्तानिस्लावस्की भी ऐसे अभिनय को केवल तकनीकी कौशल मानते थे जिसमें वास्त्विकता और भावों के योग के बिना केवल शारीरिक उछल-कूद और अदाकारी दिखाई जाती है और यथार्थता के नाम पर जीवन के निष्प्राण और नीरस दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं। उनके अनुसार रंगकर्म में नाटकीयता होनी ही चाहिए। कला जीवन से अधिक मनोज्ञ है। मंच पर यथार्थ जीवन, यथार्थ सत्य नहीं बल्कि उसका मनोहर रूप होना चाहिए। कला एक अलग जीवन सृष्टि है जिसमें समय सीमा (Time period ) की सीमाएँ नहीं होती और उसकी अपनी अलग मान्यताएँ हैं। मंच पर प्रदर्शित अनुभूति और वास्तविक जीवन की अनुभूति में एक मौलिक अंतर होता है जो अभिनेता के कौशल पर निर्भर करता है। मंच पर जिस जीवन की सष्टि की जाती है उसमें एक भव्यता, एक आकर्षण और एक रूप-अरूप सौंदर्य होता है। वास्तविक जीवन-प्रवाह में कहीं ठहराव नहीं होता जबकि नाटक में दृश्य को अधिक प्रभावशाली बनाने और कुछ परंपराओं को निभाने के लिए घटनाक्रम और सवादा में विराम का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार मंचसज्जा की श्रेष्ठता इस बात में नहीं होती कि वह प्रकृति का बिल्कुल यथार्थ फोटो हो। यदि उसमें किसी पात्र के लिए कोई कमरा बनाया जाए तो वह किसी व्यक्ति विशेष का कमरा न हो कर संसार में उस पात्र जैसे सभी व्यक्तियों का कमरा-सा लगे।

इस विवरण से यह न समझ लिया जाए कि इन दोनों आचार्यों की दृष्टि मे सत्य और यथार्थ का कोई मूल्य नहीं। स्तानिस्लावस्की ने अनेक स्थानों पर यह स्पष्ठ कर दिया है कि कला का मुख्य ध्येय मानव-जीवन के वास्तविक एवं आंतिरिक रूप को उजागर करता है। नाटक में जीवन का जो चित्र प्रस्तुत किया जाता है वह प्रकृति पर ही आधारित होता है।



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