सात्विक अभिनय का विषय रसशास्त्र से जुड़ा हुआ है। रस नाट्यशास्त्र का एक आधारभूत सिद्धांत है। यही उसका सौंदर्यशास्त्र है। रसानुभूति ही नाट्य प्रयोग की चरम परिणति है। लेखक, अभिनेता और दर्शक तीनों का प्रयोजन रसानुभूति है। यहां विषय रस नहीं, अभिनय है।
नाट्यशास्त्र में सात्विक भाव का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है-
1. अंतर्मन का भाव अथवा अनुभूति।
2. अनायास शारीरिक विकार अर्थात् सहज अनुभाव जैसे-अश्रु, स्वेद और रोमांच आदि। भरत ने भाव शब्द की व्याख्या भी बहुत सरल ढंग से की है। दार्शनिकों की भाँति इसे एक अमूर्त और अगम्य तत्व के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। उन्होंने इसे नितांत व्यावहारिक रूप दिया है और अभिनेता के मन में इसके बारे में कोई संशय नहीं छोड़ा।
भाव शब्द 'भू' धातु से बना है जिसका अर्थ है होना, अस्तित्व होना। संसार में किसी वस्तु का संज्ञान उसके रस-गंध आदि उद्दीपनों / प्रेरणा (Stimulation) से होता है और यह संज्ञान ही उस वस्तु का भाव है। नाट्यकर्म के परिप्रेक्ष्य में वाचिक, शारीरिक और सात्विक अभिनय के द्वारा नाटककार के अभिप्रेत अर्थ का प्रगट और अनुभूत रूप ही भाव है। जो विभावों के द्वारा उद्दीप्त किया जाए और जिसे वाचिक, आंगिक तथा सात्विक अभिनय के द्वारा अनुभावों के रूप में दर्शकों तक पहुँचाया जाए, उसे ही भाव कहते हैं। नाना प्रकार के अभिनय के आधार पर रसों का जो भावपन होता है, वही भाव है।
स्पष्ट है लेखक के आशय /तात्पर्य का अर्थ और अभिनय के माध्यम से उसे दर्शकों तक पहुँचाने की प्रक्रिया-दोनों ही भाव के अंतर्गत आते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि लेखक का अंतर्मन अर्थात् सत्व और उसका अभिनय द्वारा मूर्तीकरण दोनों ही भाव के अभिन्न अंग हैं। जिस अभिनय में सत्व का चित्रण होता है उसे सात्विक अभिनय कहा जाएगा और उसे अभिनय में सर्वोच्च स्थान दिया गया है।
अभिनय में सत्व का नियोजन किस प्रकार संभव है ? भरत ने स्पष्ट किया है कि वही अभिनय सात्विक कहलाएगा जिसमें सात्विक भावों-अश्रु, स्वेद और रोमांच आदि का प्रयोग देशकाल के अनुसार किया जाए। सात्विक भाव आठ प्रकार के बताए गए हैं-अश्रु, स्वेद, स्तंभ, कंपन, वैवर्ण्य, रोमांच, मूर्छा और स्वर भेद. जो शरीर में तीव्र आवेश की दशा में स्वतः प्रगट होते हैं और उनमें किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं होता। जब अभिनेता का मन अपनी भूमिका पर एकाग्र रहता है तभी उसमें सात्विक भाव उदित होते हैं। मन की एकाग्रता और सात्विक भाव एक-दूसरे के सापेक्ष हैं। सुखी अभिनेता द्वारा विषादात्मक भूमिका और दुःखी अभिनेता द्वारा सुखात्मक भूमिका का निर्वाह मन की इसी विशेषता के कारण संभव होता है।
सात्विक विकार शरीर किन स्थितियों में प्रगट होते हैं । आठ सात्विक भावों का क्रमवार विवरण...
1 - अश्रु : आनंद, शोक, शीत, भय, रोग, धूप, अंजन, अँभाई और निरंतर अवलोकन से आँखों में अश्रुप्रवाह होता है।
2 - स्वेद : क्रोध, भय, हर्ष, लज्जा, अवसाद, श्रम, रोग, ताप, आघात, व्यायाम, धूप और संपीड़न से शरीर में स्वेद उत्पन्न होता है।
3 - स्तंभ : हर्ष, भय, रोग, विस्मय, विषाद और रोष आदि के कारण शरीर स्तंभित होता है।
4 - कंपन : शीत, भय, हर्ष, रोष, स्पर्श और जरा में कंपन होता है।
5 - वैवर्ण्य : शीत, क्रोध, भय, श्रम, रोग, क्लाति, और ताप से शरीर-मुख्य रूप से चेहरा विवर्ण हो जाता है।
6 - रोमांच : स्पर्श, भय, शीत, हर्ष, क्रोध और रोग से शरीर में रोमांच उत्पन्न होता है।
7 - स्वर भेद : भय, हर्ष, क्रोध, जरा, गले की रूक्षता, रोग और मद में स्वर बदल जाता है।
8 - मूर्छा : श्रम, मद, निद्रा, आघात और मोह के कारण शरीर मूर्छित हो जाता है।
इन विकारों को अभिनय में किस, प्रकार प्रदर्शित किया जाए ?
1 - स्वेद : पसीना आने का अभिनय अंगों को पोंछकर और पंखा चलाकर करना चाहिए। पंखा उपलब्ध न हो तो पात्र को हवा लेने की इच्छा
जाहिर करना चाहिए।
2 - स्तंभ : इस अवस्था में निश्चेष्ट और निष्क्रिय होकर अन्यमनस्कभाव से शरीर को जड़ और स्थिर करके झुका लिया जाए।
3 - कंपन : इसका अभिनय करने के लिए पात्र शरीर को हिलाए और थरथराए।
4 - स्वरभेद : इसका अभिनय आवाज को गद्गद और बदलकर अर्थात् गला रूंधकर करना चाहिए।
5 - रोमांच : इसका प्रदर्शन गात्रस्पर्श, बार-बार कंटकित होना और शरीर में सिहरन के द्वारा किया जाए।
6 - अश्रु : इसका प्रदर्शन आँखों में पानी भरकर, बार-बार आँसू गिराकर और आँखों को पोंछकर करना चाहिए।
7 - वैवर्ण्य : चेहरे का रंग कृत्रिम रूप से कैसे बदला जा सकता है-इसका उपाय भी नाट्यशास्त्र में बताया गया है। यत्नपूर्वक नाड़ी-स्थान को दबाने से चेहरा विवर्ण हो जाता है। इसका अभिनय कुछ दुष्कर है।
8 - मूर्छा : इसका अभिनय निष्चेत और निष्कंप शरीर तथा स्वांस प्रवाह रोक कर और जमीन पर गिरकर करना चाहिए।
सात्विक भावों के साथ भरत ने विभिन्न स्थायी और संचारी भावों के अभिनय की विधि भी विस्तार से बताई है अर्थात् उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये भाव किस प्रकार के विभावों से उद्दीप्त होते हैं और किस प्रकार के अनुभावों से प्रदर्शित किए जा सकते हैं। अन्त में उन्होंने यह भी बता दिया है कि किस स्थायी भाव में कौन संचारी भाव विद्यमान रहता है। संचारी भाव क्षणिक रूप से स्थायी भावों के बीच में आते-जाते रहते हैं, जबकि स्थायी में निरंतरता रहती है। पहले हम स्थायी भावों के उद्दीपक और बाह्य लक्षण अर्थात् विभाव और अनुभाव।
स्थायी भाव आठ बताए गए हैं-1. रति, 2. शोक, 3. हास, 4. क्रोध, 5. उत्साह, 6. भय, 7.जुगुप्सा, 8. विस्मय।
1. रति : इस भाव की उत्पत्ति में वसंत-जैसे मौसम की बहार, सुंदर वस्त्र और आभूषण, सुगंधालेपन, माला, सुस्वाद भोजन और सुंदर भवन आदि का वातावरण सहायक होता है। इसका अभिनय स्मितवेदन, मधुर वचन, प्रक्षेप और कटाक्ष आदि शिष्ट अनुभावों से करना चाहिए।
2. शोक : प्रियजन का वियोग, पराजय, क्षति, वध, गिरफ्तारी या कोई अन्य प्रकार का बंधन और पीड़ा आदि विभावों से इसकी उत्पत्ति होती है। इस भाव के अभिनय में आँस, रोना, सिसकना, विवर्णता, स्वरभेद, अस्वस्थता, धाड़ मारकर चीखना और गिर पड़ना, लंबी साँस लेना, जड़ता, उन्माद, मोह और मरण अनुभवों का प्रयोग प्रसंग के अनुसार करना चाहिए।
3. हास : दूसरों की नकल, बाजीगरी, दुष्टता, असंगत प्रलाप, मरर्वता अड़ियलपन आदि विभावों से हास की उत्पत्ति होती है और हँसना आदि अना से इसका प्रदर्शन किया जाता है।
4. क्रोध : दोष लगाना, अपशब्द कहना, क्षति पहुँचाना और विवाद आग प्रतिकूलताएँ इस भाव के उद्दीपक हैं। इसका अभिनय आँखें तरेरना, नथुने फलाना
ओठ काटना, ऊँची आवाज में चीखना और जबड़े काँपना आदि अनुभवों से किया जाता है।
5. उत्साह : इस भाव का उद्दीपन हर्ष, धैर्य, बल और पराक्रम से या उनके दृश्य देखकर होता है। इसका अभिनय दृढ़ता, त्याग और चातुर्य के प्रदर्शन से होता
6. भय : गुरुजन, राजा, अपराध, वन्यपशु, सुनसान भवन, वन, पर्वत, सप और हाथी देखना, भर्त्सना, गुफा, रात, अंधकार, उलूक, निशाचर, विपत्ति और हुआ हआ का शोर आदि विभावों से भय का संचार होता है। हाथ-पैर कॉपना, पर धडकना, मुँह सूखना, जीभ घुमाना, पसीना आना, कंपन, त्रास, दौड़ना, चीखना, आँखें फाड़ना, रक्षा के लिए गुहार करना और वदन सन्न हो जाना आदि अनुमा के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
7. जुगुप्सा : घृणित दृश्य या पदार्थों का देखना-सुनना और स्मरण करना आदि विभाव इस भाव के प्रेरक होते हैं। इसके अभिनय में मुँह बिसोरना, थूकना, अंगों को सिकोड़ना और सीना पकड़ना आदि अनुभावों का प्रयोग किया जाता है।
8. विस्मय : जादू, बाजीगरी, अलौकिक क्रियाकलाप, विचित्र शिल्प और कला आदि विभावों से विस्मय की उत्पत्ति होती है। इसके अभिनय में एकटक देखना, आँखें फाड़ना, रोमांचित होना, सिर हिलाना और वाह-वाह करना आदि अनुभावों का प्रदर्शन किया जाता है।
स्थायी भावों के बाद व्यभिचारी या संचारी भावों का अभिनय बताया गया है। संचारी भावों की संख्या 33 हैं। नाट्यशास्त्र के अनुसार इनके विभाव और अनुभाव क्रमवार दिए हैं... ।
1. निर्वेद : इसे निवृत्ति, वैराग्य या मानसिक शांति भी कह सकते हैं। इसकी उत्पत्ति दरिद्रता, व्याधि, अपमान, क्रोध, ताड़ना, दुष्टजन का वियोग, तत्वज्ञान आदि विभावों से होती है। नारी तथा निम्नश्रेणी के पात्रों से इसका अभिनय रुदन, निःश्वास, उच्छ्वास और चिंता आदि अनुभावों से कराया जाए। अन्य पात्रों को इसका अभिनय वाष्पपूरित नेत्र, निःश्वास, हीन दृष्टि, मलिन मुख और ध्यानमग्न हो जाना आदि चेष्टाओं के द्वारा करना चाहिए।
2. ग्लानि : इस भाव का उद्दीपन अरुचि, वमन, रोग, तपस्या, उपवास, मनस्ताप, अतिशय विषयभोग, मद्यपान, अधिक व्यायाम और यात्रा, निद्रा, भूख-प्यास और शारीरिक क्षति से होता है। इसका प्रदर्शन मुख, वाणी और दृष्टि की दुर्बलता, मंदगति, अंगों की शिथिलता और स्वर-परिवर्तन आदि अनुभावों से करना चाहिए।
3. शंका (अपराध भावना) : इस भाव के उद्दीपक चोरी, लूट, कानूनी अपराध, दुष्कृत्य और उसका कारण आदि परिस्थितियाँ हैं। इसका अभिनय बार-बार देखना, मुँह सूखना, जीभ फिराना, चेहरे का रंग उड़ना, स्वर बदलना, कंपन, ओठ और कंठ सूखना तथा मुँह ढकना आदि चेष्टाओं से किया जाता है।
शंका दो प्रकार की बताई गई है-1. आत्मसमुत्था, 2. परसमुत्था। दृष्टि और चेष्टाओं से आत्मसमुत्था शंका की पहचान हो जाती है। इस प्रकार की शंका में व्यक्ति के अंग काँपने लगते हैं; और वह नीचे तथा अगल-बगल झाँकता है, उसकी जुबान अटकती है और उसका रंग स्याह पड़ जाता है। ऊपर बताए गए अन्य अनुभाव दूसरे प्रकार की शंका में प्रयुक्त होते हैं।
4. असूया : दूसरों की समृद्धि, सौभाग्य तथा बुद्धि, विद्या और शिल्प की उत्कृष्टता से उत्पन्न विद्वेष और नाना प्रकार के अत्याचार के प्रतिकारस्वरूप इस
भाव का उदय होता है। इसके अभिनय में जिस व्यक्ति के प्रति असया करनी हो, उसकी आलोचना सार्वजनिक रूप से करना, उसके गणों को बताना, मुँह नीचे रखना, भौंहें चलाना और अवज्ञा करना आदि अनुभावों का करना चाहिए।
5. मद : इसकी उत्पत्ति मद्यपान से होती है। यह तीन प्रकार का गया है-1. तरुण, 2. मध्य, 3. अवकृष्ट। भरत ने यह स्पष्ट किया है कि में लोग पाँच प्रकार का आचरण अपनी प्रकृति तथा परिस्थिति के अनसार हैं। कोई रोता है, कोई गाता है, कोई हँसता है, कोई बकता है और कोई सो है। उत्तम प्रकृति के पात्र सो जाते हैं, मध्यम प्रकृति के पात्र हँसते और गाते । और अधम प्रकृति के पात्र बकते हैं और रोते हैं।
तरुणमद में उत्तम प्रकृति के पात्र हँसमुख, मृदु और प्रसन्न रहते हैं। उनका स्वर कुछ व्याकुल रहता है और उनकी चाल में नजाकत और वक्रता आ जाती है। मध्यम प्रकृति के पात्रों की चाल कुछ अधिक टेढ़ी और असंतुलित हो जाती है, उल्टी और खाँसी आती है और जीभ भारी हो जाती है। वे थूकते रहते हैं और उनका रूप वीभत्स हो जाता है।
6. श्रम (थकावट) : अतिशय व्यायाम आदि से इसकी उत्पत्ति होती है। अंगों को सहलाना और दबाना, अँभाई, निःश्वास, धीमी चाल, मुँह और आँखों का संकुचित होना तथा सीत्कार करना आदि अनुभावों से इसका अभिनय करना चाहिए।
7. आलस्य : क्लेश, व्याधि, गर्भावस्था, श्रम और आत्मसंतोष आदि विभावों से इस भाव का उदय होता है। सभी कार्यों के प्रति अरुचि, निद्रा, तंद्रा, और शमन आदि अनुभावों के द्वारा इसका प्रदर्शन किया जाए।
8. दैन्य : दुर्गति और मनस्ताप आदि की परिस्थितियों में यह भाव प्रगट होता है। इसका अभिनय सिर दर्द, शरीर का भारीपन, अन्यमनस्कता, मलिनता और उदासीनता आदि चेष्टाओं से करना चाहिए।
9. चिंता : ऐश्वर्य-क्षय, सम्पत्ति और प्रिय वस्तु का अपहरण या विनाश और दरिद्रता आदि कष्टों से इस भाव की उत्पत्ति होती है। इसके अभिनय में लंबी साँसे लेना, संताप, अधोमुख, चिंतन, हृदयशून्यता, दुर्बलता और ध्यानमग्न रहना आदि का प्रदर्शन करना चाहिए।
10. मोह : दैवी आपदा, दुर्व्यसन, व्याधि, भय, आवेश और पूर्व शत्रुता का स्मरण आदि विभाव इसके उद्दीपक हैं। निष्क्रियता, अचेत हो जाना और चक्कर आना आदि अनुभावों से इसका अभिनय किया जाता है।
11. स्मृति : इसका अर्थ है पिछली बातों का स्मरण ! सहानुभूति, आराम, अस्वस्थता, चोट लगना, निद्रा, पूर्व में देखी वस्तुओं के सदृश वस्तुओं का दर्शन, उदाहरण, चिंता और स्वभाव के कारण स्मृति जागृत होती है। सिर हिलाना, अवलोकन और भौंहें उठाना आदि चेष्टाओं से इसकी अभिव्यक्ति होती है।
12. धृति (आत्मविश्वास) : पराक्रम, विद्यार्जन, वैभव, सफलता, पुण्य कार्य, गरुभक्ति और कौशल आदि विभावों से यह भाव जागृत होता है। विषयों के उपभोग में सफलता, असफलता, अपहृत एवं विनष्ट तथा अतीत के लिए सोच न करना आदि आचरण इस भाव के लक्षण हैं और अभिनय में इन्हीं का प्रदर्शन करना
चाहिए।
13. ब्रीड़ा (आत्मग्लानि) : गुरुजनों की अवज्ञा और उनके अधिकारों का अतिक्रमण, निंदनीय कार्य करते हुए सत्पुरुषों का पकड़े जाना, वचन का निर्वाह न करना और पश्चात्ताप आदि विभाव इसके उद्दीपक हैं। इसका अभिनय झिझकते हए धीरे से बात करना, जमीन कुरेदना, वस्त्रों को उँगली से छूना, दाँतों से नाखून काटना और चिंता आदि चेष्टाओं से करना चाहिए।
14. चपलता : सामान्य रूप से इसका अर्थ चंचलता अथवा तत्परता समझा जाता है। लेकिन नाट्यशास्त्र में इसका प्रयोग धृष्टता के अर्थ में किया गया है। इस भाव की उत्पत्ति का कारण राग-द्वेष, मत्सर, अमर्ष और ईर्ष्या आदि स्थितियाँ बताई गई हैं। इसका अभिनय कठोर वचन, भर्त्सना करना, मारना-पीटना और पकड़ना आदि अनुभावों से करना चाहिए।
15. हर्ष : मनोरथ की प्राप्ति, इष्टजन का समागम, आत्मसंतोष, गुरुजन, राजा और अधीनस्थ कर्मचारी की अनुकूलता, भोजन-वस्त्र और धन की उपलब्धि एवं उपभोग आदि विभाव इस मनोदशा के प्रेरक हैं। इसका अभिनय नेत्र तथा मुखमंडल को प्रफुल्ल रखना, मृदुवचन, आलिंगन, रोमांच, पुलक उठना, अश्रुप्रवाह और स्वेद आदि अनुभावों से करना चाहिए।
16. आवेग : उत्पात, आँधी, वर्षा, आग, उन्मत्त हाथी का बिगड़ जाना, दैवी आपदा, कोई अच्छा या बुरा समाचार सुनना, संकट और आघात आदि की स्थितियों में यह भाव उत्पन्न होता है। उत्पात बिजली गिरना, उल्कापात और केतु-दर्शन के रूप में हो सकता है। इन आपदाओं के घटित होने पर अभिनेता को शरीर का सिकुड़ना, मुख विवर्णता, अरुचि, विषाद और विस्मय का प्रदर्शन करना चाहिए।
आंधी का अनुभव आँखें मलना, कपड़े से मुँह ढकना, वस्त्र सँभालना और तेज चाल स दिखाना चाहिए। वर्षा की अनुभूति सभी अंगों को सिकोड़कर गठरी बना लेना, दाड़ना, आच्छादन की तलाश करना आदि चेष्टाओं से प्रदर्शित करना चाहिए। आग लगने की घटना धुआँ से व्याकुल नेत्र, अंगों का सिकुड़ना और हड़बड़ाकर आगे-पीछे दाड़ना आदि क्रियाओं से दिखाना चाहिए। उन्मत्त हाथी देखने के कारण उत्पन्न आवेग का अभिनय तेजी से पीछे हटना, दौड़ना, सन्न पड़ना, कॉपना और पीठे देखना आदि अनुभावों से करना चाहिए। किसी से अच्छी खबर सुनने पर जो आवेग उत्पन्न होता है, उसका अभिनय उठकर आलिंगन करना, नवीन वस्त्र और आभूषणों की भेंट देना, आँखों में आँसू भर लाना और पुलकित हो उठना आदि अनुभावों से करना चाहिए। बुरी खबर सुनने पर जो आघात लगता है उसका प्रदर्शन भूमि पर गिर पड़ना, रो पड़ना, चीखना और वस्त्र उलटना-पलटना आदि चेष्टाओं से करना चाहिए। प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न आवेग में पात्र को घटना पर गंभीरता से विचार करना, हथियारों से लैस होना, उपलब्ध सवारी पर सवार होना और घटना स्थल की और तुरंत रवाना हो जाना आदि अनुभावों का प्रयोग करना चाहिए।
17. जड़त्ता : प्रियजन का अनिष्ट सुनना या देखना और व्याधि आदि विभावों से यह दशा होती है। बात न करना, चुप्पी साध लेना, एकटक देखते रहना और यंत्रवत् आचरण करना आदि चेष्टाओं से इसका अभिनय करना चाहिए।
18. गर्व : ऐश्वर्य, उच्चकुल, रूप, यौवन, विद्या, बल, सम्पत्ति और उपलब्धि के कारण गर्व की उत्पत्ति होती है। असूया, अवज्ञा, पीड़ा पहुँचाना, उत्तर न देना, अहसान जताना, बात न करना, मजाक उड़ाना, अपने अंगों की ओर अकड़कर देखना, कठोर बोल, बड़ों का निरादर, गाली बकना और वचन तोड़ना आदि अनुभावों से इसको मंच पर प्रगट करना चाहिए।
19. विवाद (मुसीबत) : कार्य में विफलता, चोरी, राजकोप दुर्भाग्य और विपत्ति से विवाद की स्थिति पैदा होती है। उत्तर और मध्यम प्रकृति के पात्रों को इसका अभिनय सहायता माँगना, उपाय तोचना, उत्साह ठंडा पड़ जाना, अरुचि और निःश्वास आदि अनुभावों से करना चाहिए। अधम पात्रों को इसका अभिनय चारों तरफ असहाय नेत्रों से देखना, मुँह सूख जाना, मुँह की कोरों को चाटना, निद्रा, निःश्वास और बेसुध हो जाना आदि चेष्टाओं से करना चाहिए।
20. औत्सुक्य : नाट्यशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग व्यग्रता और व्याकुलता के अर्थ में हआ है-जिज्ञासा के अर्थ में नहीं। प्रियजन के वियोग और उसके स्मति के कारण यह भाव पैदा होता है। दीर्घ निःश्वास, चिंता, तंद्रा, निद्रा, शयन, अभिलाषा और मुँह लटकाना आदि अनुभावों से इसका प्रदर्शन किया जाता है।
21. निद्रा : दुर्बलता, श्रम, थकावट आलस्य, चिंता और अधिक भोजन की आदत के कारण निद्रा आती है। इसका अभिनय शरीर का भारीपन, अंगों की ओर देखना, आँखें घुमाना, जंभाई आना, विमूढ़ता, दीर्घ श्वास, शरीर सुन्न पड़ जाना, आँखें बंद करना आदि अनुभावों द्वारा करना चाहिए।
22. अपस्मार (हिस्टीरिया): यह मनोदशा परित्यक्त और सुनसान मकान में अंधविश्वास के कारण भूत-पिशाच की आशंका करना, अस्वच्छता, गिर पड़ना और व्याधि आदि के कारण हो जाती है। इसका अभिनय निःश्वास, कंपन, अस्वच्छता, दौड़ना, गिरना, पसीना, सुन्न पड़ जाना, मुँह में झाग आना, जीभ से चाटना आदि अनुभावों से किया जाए।
23. सुप्त : निद्रा और सुप्त में यह अंतर है कि नींद की इच्छा होना निद्रा है और वास्तविक रूप से सो जाना सुप्त दशा है। विषय-भोग, सम्मोहन, लेटना, पसर जाना और दीर्घसूत्रता से उत्पन्न नीरसता की अनुभूति आदि विभावों से इस मनोदशा की उत्पत्ति होती है। इसका अभिनय सुन्न शरीर, उच्छ्वास, आँखें बंद कर लेना, चेतनाशून्य हो जाना और स्वप्न देखना आदि अनुभावों से किया जाता है।
24. विवोध (जागना) : नींद उचट जाना, सपना टूटना, शोर मचाना, हिलाना और पुकारना आदि विघ्नों से नींद खुल जाती है। नींद से उठते हुए पात्र को जॅभाई लेना, आँखें मलना, विस्तर छोड़ना आदि क्रियाओं का नाटक करना चाहिए।
25. अमर्ष (विद्वेषपूर्ण क्रोध) : विद्या, ऐश्वर्य और बल की अधिकता के कारण अभिमानी व्यक्तियों का दुर्व्यवहार, गाली देना और अपमानजनक कृत्य पात्रों में इस भाव की उत्पत्ति करते हैं। पात्रों में इसकी अभिव्यक्ति सिर काँपना, पसीना आना, मुँह नीचा कर लेना, चिंता, ध्यानमग्न हो जाना और उपाय तथा सहायता की खोज करना आदि लक्षणों से होती है।
26. अवहित्य : इसका अर्थ है वास्तविक रूप को छिपाना और आंतरिक भावों को छिपाना। यह कपट-भावना से हो सकता है और किसी मजबूरी के कारण भी। लज्जा, भय, पराजय, अभिमान और प्रपंच की स्थितियों में इस भाव का उदय हो सकता है। इधर-उधर की बात करना और सीधे आँखों में न देखना, बात करते-करते बीच में बंद कर देना और धैर्य तथा आत्मविश्वास का आडंबर करना आदि अनुभावों के द्वारा इसका अभिनय किया जाता है।
27. उग्रता (उत्तेजना) : दूसरों के द्वारा चोरी और लूट आदि कानूनी अपराध और असत्य प्रलाप आदि से पात्रों में इस भाव की उत्पत्ति होती है। इन कृत्यों के दोषियों को मारना-पीटना, पकड़ना, झकझोरना और भत्सना करना आदि चेष्टाओं
से इसका अभिनय किया जाता है।
28. मति (ज्ञान, बोध) : नाना शास्त्रों के अनुशीलन और पक्ष-विपक्ष में विचार करने से यह भाव पैदा होता है। शिष्य को उपदेश देना और उसका संशय दूर करना आदि क्रियाएँ इस भाव को प्रदर्शित करती हैं।
29. व्याधि (रोग) : आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अनुसार रोग का प्रमुख कारण है वात-पित्त-कफ का संतुलन बिगड़ना। व्याधियों में ज्वर विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ज्वर दो प्रकार का बताया गया है-1. जिसमें जाड़ा लगता है (मलेरिया), 2. जिसमें गर्मी लगती है (फ्लू आदि)।
प्रथम प्रकार के ज्वर का अभिनय ठिठुरना, काँपना, तापने की इच्छा करना, ओढ़ने का उपक्रम करना, हाथ-पैर एक तरफ कर लेना और कराहना, ठोढ़ी घुमाना आदि चेष्टाओं से करना चाहिए।
दूसरे प्रकार के ज्वर का अभिनय हाथ-पैर पटकना, लेट जाना, शीतलता चाहना, लेप कराना, सिर दर्द होना, मुँह सूखना और कराहना आदि अनुभावों से करना चाहिए। ज्वर के अतिरिक्त अन्य रोगों में भी मुँह को एक तरफ कर लेना, शरीर सुन्न पड़ जाना, आँखें दुःखना, निःश्वास, जोर से कराहना और काँपना आदि अनुभावों का प्रदर्शन करना चाहिए।
30. उन्माद : इष्टजन का वियोग, वैभव का विनाश, गंभीर आघात, वात-पित्त-कफ का प्रकोप आदि कारणों से उन्माद होता है। इसका अभिनय अकारण हँसना, रोना और चीखना, असंबद्ध प्रलाप, एक ही समय लेटना, बैठना, खड़ा होना, दौड़ना, नाचना और गाना, देह पर भस्म लगाना, धूल उड़ाना, तृण, चिथड़े, मिट्टी की हाँडी, सँकोरा और तश्तरी आदि को शरीर पर आवरण की तरह धारण करना, नकल करना और असंगत आचरण करना आदि चेष्टाओं के द्वारा किया जाता है।
31. मरण : रोग अथवा चोट के कारण मरण होता है। आँतों और जिगर का दर्द, गंडपिटक ज्वर (जबड़ातोड़ बुखार यानी टिटनिस) और आंत्रशोथ (हैजा) आदि रोगों से मरण व्याधिजनित होता है। शस्त्र की चोट, सर्पदंश, विषपान, जंगली जानवर से आक्रांत होना, हाथी-घोड़ा-रथ से गिरकर चोट लगना आदि कारणों से मरण आघातजन्य होता है। व्याधिगत मरण का अभिनय गतिहीन शरीर, शिथिल अंग, बंद और स्थिर आँखें, हिचकी, निःश्वास, नीची नजर, परिजनों से अव्यक्त स्वर में बात करना आदि अनुभावों के द्वारा किया जाता है।
32. त्रास (संकटजन्य भय) : बिजली और उल्का गिरने, भूकंप, मेघ और हिंसक पशुओं का गर्जन आदि आसन्न आपदाओं से त्रास उत्पन्न होता है। इसके अभिनय में अंगों को सिकोड़ना, काँपना, सिहरना, सहम जाना, सुन्न पड़ना, रोमांच और चीखना आदि क्रियाएँ की जाती हैं।
33. वितर्क : संदेह, विचार-विमर्श और ऊहापोह से वितर्क पैदा होता है। इसके अभिनय में विभिन्न मत, प्रश्न और खंडन-मंडन का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही सिर और भौंहों को भी चलाना चाहिए।
सात्विक और संचारी भावों के अभिनय के बाद विभिन्न रसों में इनका प्रयोग भी बताया गया है।
1. शृंगार : आलस्य, उग्रता और जुगुप्सा के अलावा सभी संचारी और सात्विक भाव शृंगार रस में प्रयुक्त होते हैं।
2. हास्य : ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, चपलता, सुप्त और अवहित्थ भाव इस रस के लिए उपयुक्त हैं।
3. करुण : इस रस में निर्वेद, चिंता, दैन्य, ग्लानि, अश्रु, जड़ता, व्याधि और मरण भावों का प्रयोग होना चाहिए।
4. वीर : उत्साह, आवेग, हर्ष, मति, उग्रता, क्रोध, असूया, धैर्य, गर्व और वितर्क का प्रयोग वांछनीय है।
5. रौद्र : गर्व, असूया, उत्साह, आवेग, मद, क्रोध, चपलता, हर्ष और उग्रता रौद्र रस की व्यंजना में सहायक होते हैं।
6. भयानक : स्वेद, कंपन, रोमांच, त्रास, मरण और विवर्णता भयानक रस को व्यक्त करते हैं।
7. वीभत्स : अपस्मार, उन्माद, विषाद, भय, व्याधि, मद और मरण वीभत्स रस को उद्दीप्त करते हैं।
8. अद्भुत : स्तंभ, स्वेद, मोह, रोमांच, विस्मय, आवेग, जड़ता, हर्ष और मूछा प्रसंग के अनुसार अद्भुत रस की निष्पत्ति में सहायक होते हैं।
1. शृंगार : इसके दो प्रकार बताए गए हैं-1. संयोग, 2. वियोग।
संयोग श्रृंगार इष्टजन से संपर्क, सुंदर प्रासाद, सुहावना मौसम, मनोरम: उपवन, अलंकार, आलेपन, श्रवण, दर्शन, क्रीड़ा, लीला और उपभोग आदि उटी से उत्पन्न होता है।
इसका अभिनय नेत्रों का विशिष्ट संचालन, भ्रूक्षेप, कटाक्ष, मृदुवचन, ललित एवं मनोरम आंगिक चेष्टाओं के द्वारा करना चाहिए। __ इसमें आलस्य, उग्रता और जुगुप्सा के अतिरिक्त सभी संचारी भावों का प्रयोग हो सकता है।
वियोग श्रृंगार में निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, श्रम, चिंता, औत्सुक्य, निद्रा सुप्त, जागृति, व्याधि, उन्माद अपस्मार, जड़ता और मरण आदि संचारी भावों को प्रसंग के अनुसार अभिनय में प्रमुखता देनी चाहिए।
2. हास्य : विचित्र वेशभूषा, विवेकहीन चेष्टा, चंचलता, शरारत, गुदगुदी, असंगत प्रलाप, व्यंग्य और भूल आदि विभावों से हास्य की उत्पत्ति होती है। इसके अभिनय में ओठ, नाक और कपोल का हिलना, आँखों का फैलना और सिकुड़ना, मुँह का लाल होना और बाल पकड़ना आदि चेष्टाएँ की जाती हैं। इसके संचारी भाव अवहित्थ, आलस्य, तंद्रा, निद्रा, स्वप्न, जागृति और असूया आदि हैं।
हास्य के छः भेद बताए गए हैं-1. स्मित, 2. हसित, 3. विहसित, 4. प्रहसित, 5. अपहसित, 6. अतिहसित।
(1) स्मित में जबड़े थोड़े फैलते हैं, दाँत दिखाई नहीं पड़ते और व्यंग्य
सुरुचिपूर्ण होता है।
(2) हसित में मुखमंडल और नेत्र प्रफुल्लित हो जाते हैं, जबड़े कुछ फैलकर
दाँतों को थोड़ा प्रगट कर देते हैं।
(3) विहसित में आँख और कपोल कुछ सिकुड़ जाते हैं, स्वर कर्कश नहीं
होता, मुँह लाल हो जाता है और हँसी अवसर के अनुकूल होती है।
(4) प्रहसित : इसमें नासिका फूल जाती है, दृष्टि तिरछी रहती है और अग
तथा सिर सिकुड़ जाते हैं।
(5) अपहसित : जब हँसते-हँसते कंधा और सिर जोरों से हिले और आता
में आँसू आ जाएँ तब ऐसा हँसना अपहसित कहलाएगा।
(6) अतिहसित : इसमें नेत्र अश्रपूर्ण और उत्तेजित हो जाते हैं, स्वर विकृत और
तीव्र हो जाता है और हाथ बगल की ओर चले जाते हैं।
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